ए ! सियासत के सरपरस्तों -ज़लज़ला आने को है


हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हूडा को पिछले दिनों एक युवक के आक्रोश का शिकार होना पड़ गया जिसे उन्होंने माफ़ कर दिया किन्तु कौन कौन किस किस को माफ़ करेगा क्योंकि आने वाला समय बता रहा है कि यह आक्रोश ऐसे ही थमने वाला नहीं है ,यह फैलेगा क्योंकि जिस वजह से उस युवक में इतना आक्रोश उत्पन्न हुआ उसे न तो हमारी राजनीति ख़त्म होने देगी और न ही उस वजह की पोषक जनता .
जनार्दन द्विवेदी ने आर्थिक आरक्षण की बात उठायी -

Senior Congress leader Janardan Dwivedi wants end to reservation on caste lines

NEW DELHI: At a time when quota is the buzz word in politics, senior Congress leader Janardan Dwivedi has called for an end to reservation on caste lines and urged Rahul Gandhi to introduce quota for financially weaker sections bringing all communities under its ambit.
तो राजनीति के गलियारों में हड़कम्प मच गया कि कहीं ऐसा आरक्षण लागु हुआ तो हम राजनेता ,जिन जातियों के खैरख्वाह बनकर ऐशो-आराम की ज़िंदगी बसर कर रहे हैं ,क्या करेंगें और आखिर जनार्दन द्विवेदी की पार्टी कॉंग्रेस की हाईकमान सोनिया गांधी तक को कहना पड़ गया कि जाति आधारित आरक्षण लागु रहना चाहिए .कहना आसान है उनके लिए किन्तु जिन्हें उस आरक्षण को झेलना पड़ रहा है उनके लिए उसे झेलना मुश्किल .ये आरक्षण डॉ.भीमराव आंबेडकर ने संविधान लागू होने के दस वर्ष तक लागू करने की बात कही थी किन्तु आज 64 वर्षों बाद भी ये आरक्षण लागू है और निरंतर बढ़ता ही जा रहा है .कहीं अल्पसंख्यक ,कहीं महिला ,कहीं दलित, कहीं पिछड़े तो कहीं अनुसूचित जाति जनजाति के लिए आरक्षण लागु किया जा रहा है और परिणाम यह है कि योग्यता अंधेरों में धकेली जा रही है या फिर इस तरह के आक्रोश में उबल रही है .
ये आरक्षण का ही असर है कि इंटरमीडिएट को पढ़ाने आई अध्यापिका पाठ्यक्रम की किताब और उसकी गाइड सामने रख बच्चों को पढ़ाती है .ये आरक्षण का ही दुष्प्रभाव है कि क्लर्क पद पर बैठे आदमी को एक आवेदन पत्र तक लिखना नहीं आता .न्यायालय में बैठे न्यायाधीश को कानून की ए.बी.की.डी. भी नहीं आती ,प्रधान बनी औरत जनता में कभी काम करती नज़र नहीं आती नज़र आता है तो उसका पति जिसका नया रुतबा बन चुका है प्रधान पति के रूप में .
ये आरक्षण का ही असर है कि स्नातक -परास्नातक की डिग्री प्राप्त दुकान खोलकर बैठे हैं ,कोचिंग इंस्टीटूट चला रहे हैं .एक तरफ जहाँ देश में न्यायालयों में न्यायधीशों की कमी है और इसी कमी को दूर करने के लिए एल एल.बी.की डिग्री प्राप्त करने के बाद अधिवक्ता बनने के लिए एक साल की प्रैक्टिस की बाध्यता समाप्त की गयी किन्तु आरक्षण की मार ने कानून की अच्छी समझ वाले युवाओं को वकालत ही करने के लिए विवश कर दिया या फिर मृतक आश्रित के रूप में नौकरी कर कलम घिसने के लिए मजबूर कर दिया .
आज सामान्य वर्ग के लिए इस आरक्षण के कारण ही नौकरी मिलना ''दूर के ढोल सुहावने ''ही हो गए हैं और इस कारण युवा वे जो अच्छे समृद्ध परिवारों से हैं वे सरकारी नौकरी से इतर कार्यक्षेत्र तलाश रहे हैं या फिर आत्महत्या को गले लगा रहे हैं और ये सब न कर पाने की स्थिति में या अपने परिवार के बदतर स्थिति को देख मुख्यमन्त्री पर हाथ उठा रहे हैं और कानून को अपने हाथ में ले रहे हैं .आरक्षण अगर देखा जाये तो एक मात्र बैसाखी ही है जिसका सहारा इन जातियों को पंगु ही बना रहा है .संविधान लागू होने के बाद इतने वर्षों बाद तक आरक्षण का जारी रहना यह बताता है कि यह व्यवस्था इनके विकास में सहायक न होकर बाधक ही बन गयी है ,ये इसके आदी हो गए हैं और इस हटकर अब इनके लिए जीना ही सम्भव नहीं लगता . मैंने देखा है कि एक आदमी जो सड़क पर घिसट-घिसट कर चलता है उसे सरकार की तरफ से विकलांग के लिए मिलने वाली बाइसिकिल मिलने पर वह उसे ले तो लेता है किन्तु उस पर बैठता नहीं वह सड़क पर वैसे ही अपने हाथों और पैरों के माध्यम से चलता रहता है ऐसे ही ट्यूशन से पढ़ने वाले बच्चे कक्षा में अध्यापक द्वारा पूछे गए सवाल अपने पास लिख लेते हैं और अगले दिन अपने ट्यूटर से पूछकर तो खूब हाथ उठा उठाकर जवाब देते हैं किन्तु जब उनसे अध्यापक द्वारा सवालों का उसी दिन एकदम जवाब माँगा जाता है तो एक दूसरे की बगलें झांकते नज़र आते हैं .आज आरक्षण ने यही काम किया है सफलतापूर्वक इन जातियों की योग्यता को ख़त्म कर इन्हें कठपुतली बनाने का .
जनार्दन द्विवेदी जी का आरक्षण के लिए आर्थिक आधार की बात कहना वर्त्तमान परिस्थितियों में पूरी तरह से उपयुक्त है क्योंकि आर्थिक आधार के अंतर्गत जो भी आज के समय में पिछड़ा हुआ है वह इस दायरे में आ जायेगा फिर एक तरफ तो देश में जाति प्रथा को हटाने की बात कही जाती है और दूसरी तरफ आरक्षण का आधार जातियों को मानकर उन्हें बाँट दिया जाता है .आज अगर इन राजनीतिक दलों में से किसी में भी देश हित व् जन हित की भावना है तो उसे आर्थिक आधार को ही आरक्षण का मुद्दा बनाना होगा क्योंकि जो स्थिति इस वक़्त इन राजनीतिक दलों ने पैदा की है उसमे कभी भी विकास में समानता नहीं आ सकती .ऐसे में देश मात्र एक तराज़ू के पलड़ों की तरह बँटकर ही रह जायेगा .आज जो पिछड़े हैं वे आगे बढ़ जायेंगें और जो उच्च जातियां हैं वे पिछड़ जाएँगी जबकि कहने को राजनीतिक दलों का उद्देश्य सभी का हित है ,सभी को साथ लेकर चलने का ही ये स्वप्न देखते हैं जबकि काम जो करते हैं वह केवल बाँटने का ही करते हैं इन्हें अपने गिरेबान में झांककर देखना होगा और अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करना होगा क्योंकि जब तराजू के दोनों पलड़ों में बराबर वज़न होगा तभी तो वे समान होंगे और ऐसा आर्थिक आधार पर आरक्षण से ही सम्भव है और यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो आज का थप्पड़वाद कल का दंगा वाद ,बलवावाद ,चाकू वाद ,गोली वाद किसी में भी बढ़ सकता है क्योंकि -
''दबी आवाज़ को गर ढंग से उभारा न गया ,
सूने आँगन को गर ढंग से बुहारा न गया ,
ए ! सियासत के सरपरस्तों ज़रा गौर से सुन लो ,
ज़लज़ला आने को है गर उनको पुकारा न गया .''
शालिनी कौशिक
[कौशल ]

टिप्पणियाँ

बिलकुल सही विश्लेषण है - चेत जाना चाहिये !
Kailash Sharma ने कहा…
बहुत सार्थक और विचारोत्तेजक आलेख..वोटों की राजनीति के चलते आरक्षण की नीति में बदलाव की आशा बहुत कम है...

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